न जाने कितने औषधीय पौधों व पेड़ों का अकुत भंडार है, जिसकी हमलोग कल्पना भी नहीं कर सकते। समय काल के इस चक्र में कई औषधियां चाहे विलुप्त हो गई हो, लेकिन जिले की सीमा में फैली सतपुड़ा की दुर्गम पहाड़ियों में दुर्लभ व विलुप्त होते पीले पलास का अस्तित्व आज भी बरकरार है। वैसे तो केसरिया रंग का पलास पूरे भारत वर्ष में पाया जाता है, लेकिन पीला पलास दुर्लभ हो गया है। केसरिया रंग का पलास न सिर्फ पहाड़ी अंचलों में, बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी प्रायः देखने को मिलता है, लेकिन पीला पलास वास्तव में विलुप्त होते जा रहा है। पीला पलास छिंदवाड़ा, मंडला और बालाघाट के घने जंगलों में महज एक-एक पेड़ ही दिखाई देते है, जिनका उल्लेख अखबारों या पत्रिकाओं में होता रहा है। खरगोन में पीला पलास पीपलझोपा रोड़ पर बन्हुर गांव की ढ़लान पर और भीकनगांव के काकरिया से गोरखपुर जाने वाली सड़क पर कमल नारवे के खेत की मेढ़ पर पनप रहे है।
ढ़ाक के तीन पात, इसी से बना मुहावरा
पलास को टेसू, खाकरा, रक्तपुष्प, ब्रह्मकलश, कींशुक जैसे अनेकों नाम से भी जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम ब्यूटीका मोनास्पर्मा ल्यूटिका है। पलास को उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का राजकीय पुष्प भी माना जाता है। पलास न सिर्फ देखने में सुंदर और आकर्षक है, बल्कि इसके सभी अंग मानव के लिए औषधीय रूप में काम आते है। साथ ही “ढाक के तीन पात“ मुहावरा इसी पलास की पत्तियों के कारण बना है। पलास के पत्ते, डंठल, छाल, फली, फूल और जड़ों को भी आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। कुछ वर्षों पूर्व होेली के समय अक्सर पलास के फूलों से रंग बनाया जाता रहा है, लेकिन आज कैमिकल रंगों के आ जाने से इस फूल के रंग का उपयोग सीमित मात्रा में किया जाता है। पलास के पांचों अंग तना, जड़ा, फल, फूल और बीज से दवाईयां बनाने की कई तरह की विधियां है। पलास के पेड़ से निकलने वाले गोंद को कमरकस भी कहा जाता है।
पलास ग्रामीण और आडिवासियों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण औषधी
पहाड़ी अंचलों में प्रमुखता से पाए जाने वाला केसरिया रंग का पलास ग्रामीणों के जन जीवन में रचा बसा है। इसका उपयोग न सिर्फ रंग के रूप में काम में लिया जाता है, बल्कि स्वास्थ्य वर्धक गुणों के आधार पर कई बीमारियों में ग्रामीणजन अक्सर काम में लाते है। मोतियाबिंद या आंखों की समस्या होने पर काम में लिया जाता है।
पलास की ताजी जड़ों का अर्क निकालकर एक-एक बुंद आंखों में डालने से मोतियाबिंद व रतोंधी जैसी बीमारियों में कारगर साबित होता है। इसी तरह नाक से खुन बहने पर भी इसका उपयोग होता है। वहीं गलगंड या घेंघा रोग में भी इसकी जड़ को घीसकर कान के नीचे लेप करने से लाभ होता है। इनके अलावा भूख बढ़ाने में, पेट के दर्द और पेट के कीड़े निकालने में भी इसका उपयोग खासकर ग्रामीण अंचलों में किया जाता रहा है।
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